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आन्दोलन और आन्दोलन : “पाठकनामा” के लिए

सपाटबयानी
सपाटबयानी
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इस समय हमारा देश जिन हालातों में है, उसे सब जानते हैं उसको बयान करना नहीं चाहता!अभी तमाम आंदोलनों से यह भी साफ़ होंगया है की सरकार दरी हुयी है,और जनता परेशान है.कहा जाता है की पहले आंदोलनों पर लोगों का विश्वास था इसलिए अन्ना जी के साथ तमाम देश आ गया था , पर फिर क्या हुआ की वे टूट से गए? उसमे सभी तहे दिल से साथ थे,रामदेव और अन्य भी .उसके बाद वाले आन्दोलन में रामदेव ने चालाकी कर भीड़ के न होने की बात का प्रचार किया जाहिर है की उनके मन में खोट आगया की मेरे सहयोग से अन्ना इसकी क्रेडिट क्यों ले जाए? अतः उस आन्दोलन से बैक आऔट कर गए और जब अन्ना ही मैदान छोड़ कर भाग गए और राजनीति की बात करने लगे तो लोग ही टूट गए और अन्ना पर से विश्वास ही हट गया. अब मैदान खाली जान कर रानदेव अपना मैदान संभालने को आगे आगये हैं.रामदेव के काले धन का मुद्दा सही है , पर क्या यह कहावत”जिसके अपने घर शीशे के है उंहें क्या दूसरों के घर पत्थर फेकनें चाहीये?” आप चले जाएँ ,रामदेव के आश्रम कनखल में ,क्या न ठाठ है वहां के ,क्या काला धन वहां नहीं है?अब साफ़ हैं की राम देव की चाल से कोई अनभिज्ञ नहीं है, की वे संसद में पहुँचना चाहते हैं,सरकार से सौदे बाजी करके ,जनता की यह मजबूरी है की मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है,सो भटक गयी है,अन्ना ने तो विश्वास खो दिया है अब उन्हें उसी गाँव वाले मंदिर की कोठारी में जाकर ४००/- महीने में गुजारा करना चाहीये जैसा उन्होंने खुद ही कहा था ,बाकी जनता ” एक ही पत्थर से दुबारा ठोकर नहीं खाने वाली है?”जनता के लिए रामदेव और शाम देव (अन्ना ) में कोई भी अंतर नहीं लगता?जब पूरा देश ही भ्रष्ट है तो क्या ये और राह से आये हैं?

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