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पुरुष अहम् भारी और पुरुष भी भारी!

सपाटबयानी
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सुश्री शिखा कौशिक जी की पोस्ट ‘मानस के रचनाकार में भी पुरुष अहम् भारी’ विषय पर आपने सुन्दर विचार दे कर हमें यह पोस्ट लिखने को प्रेरित किया! हम आप के आभारी हैं, शिखा जी आपसे पहले ही माफी मांग कर अपने विचार दे पाऊँगा, कही आप को यह न लगे की मै पुरुष हूँ इसलिए ऐसी बात कर रहा हूँ,सपाट बयानी स्वभाव के कारण मैं नहीं रह पाऊंगा , इसे बिना कहे ! पुराने जमाने से ही यह परम्परा या हायरार्की चली आ रही है जो आज तक तो क्या हमेशा ही रहेगी,इसमे ऊपर वाले ने ही यह व्यवस्था कर रखी है, कोई भी कुछ नहीं कर सकता? शायद यही कारण है की आज भी कन्या पक्ष,वर पक्ष के पास रिशते के लिए जाता है जब की दोनों की बराबर की ही जरूरत है! और भी कई बातें हैं जिन्हें सब जानते है, अन्य बातों को छोड़ भी दें तो यह भी महत्व पूर्ण कम नहीं है की आज तक लडके की चाह बनी हुई है हमारे समाज मे,और अपनी मूंछ को समाज मे ऊपर बनाए रखने के लिए! आज भी पुरुष को जितनी जरूरत महिलाओं की है उससे ज्यादा महिलाओं को पुरुषों की रही है और जब तक यह दुनिया है और रहेगी यह बात बिना किसी परिवर्तन के चलती रहेगी.हालांकि मै व्यक्तिगत तौर पर लडके की अपेक्षा लड़की को ही ज्यादा पसंद करता हूँ जिसके कारण यहाँ देना नहीं चाहूंगा परन्तु लड़का कैसा भी हो फिर भी उसकी चाह हम बनाए रखने को कम नहीं आंक सकते? ( लड़की को माँ बाप का जितना दर्द होता है उतना लडके को कभी नहीं होता ) हमारे समाज में उच्च शिक्षा के कारण अब लड़किया भी आगे जा रही हैं उन्हें नौकरी करने के लिए, परिक्षा देने या अन्य कार्य से अपने शहर से बार- बार बाहर जाना होता है , अकेले रहने को विवश होना पड़ता है,तब क्या हर समय उसके साथ भाई या पिता का जाना संभव नहीं होता ऐसे में उसके साथ कोई अपना होना जरूरी होता है वह अपना ही हो सकता है! पुरुष के साथ वह सुरक्षित समझी जाती है यही कारण है की माँ बाप बेटी के हाथ पीले कर चिंता मुक्त हो जाते है और अपने को उसके बाद इस जिमेदारी से मुक्त समझते हैं!
हिन्दी साहित्यकार आचार्य रामचंद शुक्ल जी ने अपने निबंधमणि निम्बंध संग्रह के एक निम्बंध “मानस की धर्म भूमि में भरत द्वारा अपनी माँ को खरी-खरी सुनाने में भी परहेज नहीं की है! यहाँ पर पुरुष का वर्चस्व देखा जा सकता है? इसी तरह साहित्यकार कहानीकार और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने जितनी भी रचनाएँ की हैं, सब में पुरुषों को ही प्रधानता दी है ,उनकी तमाम कहानिया जो आठ संग्रहों में ( मान सरोवर ) हैं इसका प्रमाण है ,यह उन्होंने महिलाओं के हित में जाना था.अपने जीवान के अंतिम उपन्यास ‘गोदान ‘ जो १९३६ में लिखा है , में औरत को कोमालान्गिनी कहते हुए उसकी ‘हंस’ से उपमा दी है और पुरुष की ‘बाज’ से, आचार्य जी लिखते हैं की उनकी शारीरिक रचना ही ऐसे हुई है ! और उंहोने कहा है औरतो के स्वभाव और रचना के ही कारण उन्हें घर के अन्दर और मर्द को घर के बाहर रह कर काम करना चाहीये, (आज यह सब ना होने के कारण ही सब व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही है शायद !)
आज सरकार के बनाए क़ानून चाहे जैसे भी हों, फिर भी यह वास्त्विकता तो बनी रहेगी,भले ही अब मर्द के सामने ,महिला आयोग के कारण वह मजबूत हो कर खडी हो सकी है, पर फिर भी उसे मर्द के सामाने जरूरत और सुरक्षा के लिए निहारने की जरूरत महसूस होती ही रहेगी ! यहाँ यह भी न समझा जाए की इसमे महिलाओं का किसी तरह का अहम् कम या पुरुष का अहम् भारी पड़ता है!जैसा की शिखा जी ने समझा है,लिखा है! आज भी चाहे महिलाये बिना शादी के रह रही हों, पर पुरुषों की संख्या ज्यादा ही मिलेगी,और यह पुरुषों की संख्या बदती ही जायेगी. शादी के बाद महिलाओं द्वारा नाजायज तंग करने के कारण?

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