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बिना फल के क्यों और कैसा कर्म?

सपाटबयानी
सपाटबयानी
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गीता में लिखा गया है की कर्म करो फल की इच्छा न करो! जब फल नहीं मिलना है तो कोई क्यों करेगा कर्म करने की जहमत? जब डिग्री हासिल की है ,मेहनत की है और नौकरी न मिले तो कोई इस डिग्री को हासिल करने की मेहनत क्यों करेगा? तर्कसंगत तो है पर क्या अर्थ है इस बात में? पूर्व में तो लोग मान लेते थे या इस पर कोई टीका करना पाप ही मानते थे,क्योंकि गीता ज्ञान है जो, लेकिन अब हर बात को तर्क की कसौटी पर बिना कसे कोई मानता कहाँ है? तो टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अलग नमूने की है!
टीका कार मानते हैं की ‘कर्म’ करते समय यदि ‘फल’ पर ध्यान होगा तो ‘कर्म’ पर एकाग्रह्ता नहीं आ पायेगी और ‘कर्म’ अछी’ तरह नहीं हो पायेगा! इसे समझने के लिए एक उधाहरण दिया गया है, जिसे जानने इसे समझना सरल हो जाएगा! भीड़- भाड़ वाले शहरों में आप सड़क के इस तरफ से उस तरफ बस पकड़ने के लिए जाना चाहते हैं और आपको लगता है की जल्दी में उस ओर पहुंचा जाय नहीं तो बस निकल जायेगी , यहाँ बस पकड़ना ‘फल’ और सड़क पार करना ‘कर्म’ है! सो आप हडबडाहट में यदि बस ( फल ) पर ध्यान देकर सड़क ( कर्म ) को पार करेंगे तो आपका अक्सिडेंट हो सकता है क्योंकि आपका पूरा ध्यान तो बस ( फल ) पर ही है! इसलिए आप सुरक्षित पहुंचना चाहते हैं ( ‘कर्म’ के बदले ‘फल’ चाहते हैं ) तो पहले पूरा ध्यान ‘कर्म’ याने सड़क पार करने पर दें, बस ‘फल’ मिले या न उसका ख्याल करना ही नहीं है !दूसरे शब्दों में वह ( फल ) तो मिलना ही है! जब मिलना ही है तो क्यों करे चिंता उसकी? एक गीत भी तो है— ‘कर्म किये जा फल की ईच्च्छा मत कर ऐ इंसान, जैसे कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान् ,ये है गीता का ज्ञान ,ये है गीता का ज्ञान!

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