कहा जाता आदमी तो कमजोरियों का पुतला होता है, उससे कभी न कभी और कहीं न कहीं गलती हो ही जाती है, यदि ऐसा न हो तो ‘भगवान’ और ‘आदमी’ में फर्क ही क्या रहेगा? या कहें की आदमी ,भगवान न हो जाए? पर क्या भगवान गलती नहीं करते? या उनसे गलती नहीं होती? दशरथ के बेटे राम तो आदमी थे, बाद में वे ‘राजा राम’ से ‘भगवान राम’ बन गए! इसीतरह युधिष्ठर जो अपने चरित्र के कारण पूजनीय ही थे, लगभग भगवान ही जाने और माने जा सकते हैं! अब अन्य बातों के विवाद में न जाएँ, तो राम द्वारा बालि को छल से मारना क्या उचित कहा जा सकता है? वह भी छल से और कपट से? , यह रास्ता तो जन सामान्य का है,और हो सकता है! ‘राम’ का तो नहीं और ‘भगवान राम’ का तो हो ही नहीं सकता? इसी तरह ‘धर्म’ का पर्याय माने जाने वाले युधिर्शथर द्वारा सच्च के अवतार माने जाने के कारण, युद्ध के मैदान में आचार्य द्वारा अपने बेटे ‘अश्वथामा’ की सही जानकारी लेने के लिए धर्मराज को ही चुना,क्योंकि वे सदा सच्च ही बोलते हैं, इसी आशा में आचार्य ने उन्हें ही चुना ! ,नरो वा कुंजरो वा’ के उत्तर से और उसमे विघ्न के कारण सही अर्थ न पहुँचाने पर, क्या वे दोषी नहीं कहे जा सकते? या की इस भेद की जानकारे ही नहीं थी? की यह कु चक्र हमारे ही लोगों द्वारा रचाया गया है? यहाँ वे अपने चरित्र के सही होने के प्रमाण देने में कहाँ तक सफल माने जा साकते है? कहने का मतलब है की जाने अनजाने में होने वाली गलतियों को अगर गलती नहीं माने तो फिर भगवान काहे का और काहे का धर्मराज? आप पाठक लोग इन विचारों से व्यथित न हों, न तो ये आक्षेप है न ही और कुछ! यह मेरा कम ज्ञान भी माना जा सकता है, आप चाहें तो समाधान दे कर, सागर में हिलने वाली मेरी नैया को राह दिखा सकते है!
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