‘प्रेम’ ,’श्रद्धा’ और ‘भक्ति’ ,ये तीन शब्द लगते एक जैसे अर्थ वाले है,पर बहुत ही सूक्ष्म अंतर लिए हुए है! आध्यात्मक विचार से तो ये तीनो शब्द और भी गहरा अर्थ रखते है, जहा समझने के लिए हमें और से और मंथन करना पड़ता है ! हां असमानता होते हुए भी एक समनता है, वह यह की तीनो में दो पक्षों का होना ज़रूरी है! चाहे वे समान लिंग वाले हो या फिर विपरीत लिंगीय ! ‘प्रेम’ – ‘प्रेम’ भाई- भाई में होता है,भाई-बहिन में होता है, माँ बाप से होता है,सम लिंगीय या विषम लिंगीय मित्र-मित्र में होता है ,शागिर्द और उस्ताद में होता है ,आदि-आदि! आजकल ‘आसक्ति वाले प्रेम’ के लिए यह शब्द ज्यादा प्रचलित हो गया है! जिसमे विपरीत लिंग वाले दो पक्ष ही होते है! पर पश्चिमी प्रभाव के कारण अब सामान लिंगी प्रेम ( प्यार ) को भी कानूनन मान्यता मिल गयी है! उसे हम अभी यहाँ नहीं ले रहे है! यहाँ हम लडके और लड़की, आशिक और माशूक के प्रेम को ही ले कर चलते है !जो आजकल किया जा रहा है! ‘श्रद्धा’ – ‘श्रद्धा’ में दो पक्षों में दोनों ही सम लिंगी या विषम लिंगी हो सकते हैं! एक होता है ‘श्रद्धालु’ और दूसरा होता है ‘श्रद्धेय’! इनके बीच में एक माध्यम होता है और वह है ‘श्रद्धा’ ! इसके बिना श्रद्धालु कभी भी श्रद्धेय के करीब नहीं पहुँच सकेगा! श्रद्धा रखने वाले ( श्रद्धालु ) के आगे तर्क का कोई स्थान नहीं होता और वह बिना सोचे समझे अपने श्रद्धेय को समर्पित हो जाता है! यह आँख मूँद कर अपने श्रद्धेय के कहने पर चलता है! प्रेम और श्रद्धा में अंतर :- साहित्यकारों ने कहा है की प्रेम मे घनत्व (गहराई) होता है जब की श्रद्धा में विस्तार ( फैलाव ) होता है, अर्थात आप जिससे प्रेम करते है,आप चाहेंगे की उससे कोई और प्रेम न करे वह सिर्फ मेरी ही होकर रहे , आप अपनी प्रेमिका के लिए जान भी दे सकते है! यदि आपकी प्रेमिका पर कोई और नजर डालता है तो आप उसका खून तक करने को भी तैयार हो जायेंगे या लडकी ने आपसे धोखा कर किसी और से प्यार करने की कोशिश की, तो आप उसे मार भी सकते है! आजकल प्रेमी द्वारा ऐसी लड़कियों के मुंह पर प्रेमी लोग एसिड डालने से पीछे नहीं रहते! असफल प्यार में आप किसी हद तक भी जा सकते है! प्रेम में एक और एक का ही अनुपात चलता है ! हिन्दी के रीति बद्ध और रीति मुक्त कवि ‘घनानंद’ राजदरबारी कवि थे और शाही रक्कासा ( नर्तकी ) ”सुजान” का प्यार इसी श्रेणी में रखा जा सकता है! ठीक इसके विपरीत श्रद्धा मे आप जिसके प्रति श्रद्धा रखते है आप चाहेंगे की उनके श्रद्धालु ज्यादा हो उतना ही आपको अच्छा लगेगा! क्योंकि यहाँ यह मनोविज्ञान काम करता है कि श्रद्धालु को बेहद खुशी होती है कि वह जिसके प्रति श्रद्धा रखता है उसके तमाम श्रद्धालु या अनुयायी है! इस संख्या बढ़ने से उसका मान जो बढ़ता है! श्रद्धा में एक और अनेक का अनुपात रहता है! आजकल के तथाकथित साधू और संतो के श्रद्धालुओ की भीड़ का उद्धाहरण लिया जा सकता है! अब हम ‘भक्ति’ को लेंगे कि यह ‘भक्ति’ क्या है ? अक्सर तो यह भक्त और भगवान में होती है अर्थात इसमे यह भी कहा जाता है की दो अलग-अलग स्तरों के लोगो के बीच भी भक्त और भगवान वाला रिश्ता होता है इसलिए कभी कभी हम कहते सुने जाते है की फलां उसका भक्त है,पर ये स्वार्थो के कारण होता है,इसलिए हम केवल यहा भगवान और भक्त की भक्ति को ही ले कर चलेंगे! भक्त,भक्ति के सहारे जब करते-करते भगवान के इतने तो नजदीक आ जाता है की वह भगवान् को कुछ भी कह सकता है और भगवान उस भक्त का बुरा नहीं मानता! यह स्थिति तब बनती है जब भक्ति करते- करते भक्त ही भगवान बन जाता है, और वह भगवान् को कुछ भी कहने को स्वतंत्र हो जाता है! राम के भक्त तुलसीदास ऐसे ही भक्तो की श्रेणी में रखे गए है! भगवान् और भक्त का एक नमूना और है–अष्टछाप के कवियों में कुम्भनदास जी,का नाम ,जो कृषण भक्त थे, बड़े आदर और विश्वास से लिया जाता है! बताते है की वे भक्ति में ऐसे लीन हो जाते थे की उनकी पत्नी नहाने और खाना खाने के लिए उन पर पानी की भरी बाल्टी डालती थी तब उनका ध्यान टूटता था ! तभी तो फतेहपुर सीकरी ( आगरा ) में अकबर राजा तक को उन्होंने कह दिया था की राजन आगे से मुझे अपने दरबार में कभी न बुलाना, क्योंकि इससे मेरी भक्ति में खलल पड़ता है! क्या कोई साधारण आदमी हिन्दोस्तान के सम्राट को ऐसा कह सकने का साहस कर सकता है? यह है उत्तम भक्ति का अनोखा उद्धाहरण!
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