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“थ्री टीयर कोच” बनाम “आध्यात्मिकता” ??

सपाटबयानी
सपाटबयानी
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हम सबने रेल के थ्री टीयर कोच में सफ़र तो किया ही होगा! इसके अन्दर लोअर, मिडल और अपर बर्थ्स होती है! रात को तो सब अपनी-अपनी बर्थ्स खोल कर आराम करते है ,पर दिन के समय जब तक मिडल बर्थ वाला नहीं उठकर नीचे नहीं आ जाता, तब तक लोअर बर्थ पर बैठना मुश्किल हो जाता है! इस हांलात में अपर बर्थ वाला चाहे तो ऊपर रहे या नीचे आ जाए कोई फर्क नहीं पड़ता!
भक्त,भगववान की भक्ति करता है , और भक्ति करते-करते भगवान् के इतने नजदीक आ जाता है की भक्त ही भगवान् बन जाता है! बीच के तत्त्व ‘भक्ति’ का कोई खेल ही नहीं रहता! यहाँ रेल के थ्री टीयर कोच की बात याद रखे तो यह खेल समझ में आ जाएगा! भक्ति में तीन तत्व रहते है- भक्त, भक्ति और भगवान! ये क्रमश लोअर, मिडल और अपर बर्थ है, भक्त, भगवान् कब बन जाता है? जब वह भक्ति करते-करते भगवान् के नजदीक आ जाता है अर्थात बीच का तत्व ( मिडल बर्थ ) हट जाता है, तभी तो भक्त भगवान् के सान्निध्य को प्राप्त होता है या कहे की भक्त ही भगवान् हो जाता है! और जैसे बीच की बर्थ हट जाने से आनंद ही आनद आता है वैसे ही इस ‘भक्त’ की स्थिति भी हो जाती है! इसी प्रकार अब देखिए—
उपासक, उपासना करते-करते उपास्य के नजदीक आ जाता है, साधक, साधना करते -करते साध्य के पास आ जाता है, मुरीद, मुराद मंगाते- माँगते मुर्शिद के नजदीक आ जाता है, प्रार्थी, प्रार्थना करते-करते प्रार्थनीय के नजदीक आ जाता है, वन्दक, वन्दना करते- करते वन्दनीय के नज़दीक आ जाता है,और याचक, याचना करते-करते दाता के नजदीक आ जाता है ! तब (बीच की बर्थ) क्रमश उपासना, साधना,मुराद, प्रार्थना, वन्दना और याचना सब हट जाते है और आनंद की ऐसी अनुभूति होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता!,तब उपासक ही उपास्य, साधक ही साध्य,मुरीद ही मुर्शिद,प्राथी ही प्रार्थनीय, वंदक ही वन्दनीय और याचक ही दाता बन जाता है! यही है खेल सब खेलों का!

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