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मंदिर और गाय के थन?

सपाटबयानी
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क्रान्तिकारी जैन मुनि संत कहे जाने वाले ‘तरुण सागर’ ने मंदिर को गाय के थन से तुलना करते हुए कहा है कि जैसे गाय के शरीर में ही दूध व्याप्त होता है पर उसके सींग या पूंछ या फिर टांग को निचोड़ने से दूध नहीं मिल सकता, दूध लेने के लिए हमे उसके थनों को ही निचोडना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार भगवान् को पाने के लिए हमें मंदिर मे ही जाना पडेगा! यह जवाब तरुण जी ने अपने एक भक्त के सवाल की — जब अगम,अगोचर,निर्विकार, निराकार भगवान जब सर्वव्यापी है, तो मंदिर में जाने की जरूरत क्यों होती है?,दिया! बात सही मानने वाले अंध:भक्त भले ही मान ले, पर क्या यह सही है?
अब मेरे मन में एक सवाल हिलोरे ले रहा है की क्या संत भी क्रांतिकारी होते है?, जैसा की तरुण सागर ने अपने नाम के आगे लगा रखा है? क्रांतिकारी! यहाँ क्रांतिकारी का मतलब यह है की अगर आप मेरी बात से असहमति दिखाएँगे तो मै अपने गुंडों और पालतुओं द्वारा आपके विरूद्ध क्रांति लाकर तबाह कर दूंगा क्यों की मेरे पास धन और बल की शक्ति जो है!
यह साफ़ है की ये मंदिरों की पैरवी करने वाले तथाकथित साधू/संत मंदिरों के दलाल ही है या कहे की इस धरती पर बोझ ही है जो सीधे- सादे लोगो का शोषण करते रहते है! तो फिर संत कैसे?
कबीर दास ने कहा है की—
“बन्दे मुझे कहा ढूंढें,
मै तो तेरे पास रे,
ना मै मंदिर ना मै मस्जिद,
ना काबे कैलास में!”
कबीर की इसी बात को मानकर जो लोग जो मंदिरों मस्जिदों,गुरुद्वारों और काबे, कैलास तथा मक्का-मदीनो में भगवान को न मानकर गरीबों में, जरूरत मंदों में भगवान को मानते है और उनकी सेवा ही भगवान की सेवा मानते है, वे ही समझते की भगवान् का वास तो गरीबो और जरूरत मंदों कीसेवा में ही है और वे ही सच्चे भगवान् है ! अतः:हमें मंदिरों में न जाकर उनकी सेवा, करके, उनकी भूख मिटा कर ही मंदिर वाला लाभ लेना चाहीये! भगवान् भी गरीबो की सेवा से प्रसन्न होते है न की इन प्रवचन कर्ताओं द्वारा धन बटोरने वालो की सेवा करने से!
ये अंध: भक्त अपने बच्चों का पेट काटकर, जब इन लम्पटों को अपने खून पसीन्ने की कमाई देते है और ये तथाकथित प्रवाचक या साधु तमाम पैसा इकठा कर करोड़ों के मालिक बन जाते है, तो क्या इनके आगे जी हुजूरी और धन-सेवा से लाभ मिल सकता है? जवाब है नहीं और बिलकुल ही नहीं!अब यह जानकर भी क्यों सब लोग इन संतों की सेवा में लगे रहकर अपना समय और पैसा बर्बाद करते है?
इन के सत्संगो में एक वातावरण बने होने की धाक सबको केवल और केवल सुनने को ही विवश करती है,न की कुछ बोलने को! और तो और वहा अगर आपने कोई बात कही जो उनके खिलाफ हो तो उनके गुंडे या जिसे हम अनुयायी कहते है, वे आप को धमकाने पर आमदा हो जाते है ! सो आप कुछ कहने की चाह रखते हुए भी चुप रहेंगे,, यह आपकी विवशता है! और यह बात यदि सही है तो क्यों जाना है ऐसे असामाजिक तत्वों से भरे लोगो की भीड़ में?कहने का मतलब है की सागर मुनि द्वारा ‘मंदिर और गाय के थन’ का जो उद्धाहरण दिया है उससे क्या कोई विवेकशील व्यक्ति सहमत हो सकेगा? आप सोचकर बताये!

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