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कहाँ रहा अब कुंवारियो का कुंवारापन?

सपाटबयानी
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हिन्दी साहित्य में ‘कुंवारी’ का मतलब, परम्परा गत अर्थ के साथ शर्म,हया और नज़रों के नीची ही रहने से हुआ करता था! जो अब धीरे-धीरे अर्थ संकोच के कारण केवल ‘अविवाहित’ के अर्थ मे ही रहा गया है! और आगे यह कहकर हमें सूचित करता है की आजकल तो वह भी नहीं रह गया है! यह आधुनिकता के कारण है या इसे लोग विकसित होना भी कहते है! यही कारण था की जहाँ टीचर ‘सह- शिक्षा’ के कारण कक्षाओं में बिहारी के इस दोहे —-
“काम झूले उर में, उरोजन में दाम झूले! श्याम झूलें प्यारी की अनियारी अखियन में!”
के अर्थ को समझाने में लाज और शर्म महसूस करते थे, अब खुद ये तथाकथित कुंवारीयाँ ही शर्म,हया और नज़रों को ऊठाकर कुंवारेपन को शंकित कर इस तरह कहने और रहने लग गयी हैं! जिससे कविवर बिहारी लाल भी शर्मिन्दा होते दीखते? इन तथाकथित कुंवारियों के इन कदमों से हम और हमारा समाज बिगड़ता चला जा रहा है! या कहें की बिगड़ ही गया है, और उस मोड़ पर आ गया है की उससे वापिस जाने की कोई और राह है ही नहीं! स्वतंत्र होकर और आगे की चाह ने उन्हें उन्मुक्त होकर घूमने और कुच्छ करने की छूट भी दे दी है! आज जब उनके द्वारा यह कहते हुए सुनते है की– जो दिखेगा, वो बिकेगा! और जब हम दिखाएयेंगी नहीं तो लडके कैसे आकर्षित होंगे? और तो और ये लड़कियां यह भी कहती है की—
” जो लड़कों को चाहीये वो सब तो हमारे ही पास है, तो हम उनसे बड़े हुए की नहीं?” आदि-आदि!
इसी कथन को क्रिया रूप देकर ये लड़कियां अब तो कमीज भी ऐसी पहनने लगी हैं जिससे उनकी छातियों की विभाजन रेखा भी दिखाई दे! ( यह बात एक महिला ने लड़कियों के लिए ही अपनी पोस्ट मे लिखी है )! हमें गर्व है आज के आधुनिक लड़कियों के कुंवारी होने और उनके कुंवारेपन पर!

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